Tuesday, October 03, 2006

gadhya

गांधी जंयती पर विशेष

“बुरा करो; बुरा सोचो; बुरा देखो”.... (लेखक-पवन कुमार “भ्रमर”)



अक्सर कुछ मानवीय विचारधारा के लोग सदा संदर्भित व्याख्या के साथ मुझसे मानविकी पर विचार करने के लिये चले आते हैं और मै भी विना किसी संकोच के उन सब को मानविकी के के बडे-2 लेक्च्रर देने लगता हूँ ।

आज का विषय था “बुराई करना”। यहाँ बुराई करने का तात्पर्य सिर्फ पीठ पीछे बुराई करने से है।भाषा में कमजोर लोगों को बताना चाहूंगा कि चुगली करना;ख़ुन्न्श निकालना;वचन बदलना (धातु की अनुपस्थिति में और उपयुक्त समय देखकर) भी इसी इसी विशिष्ट कला के प्रारूप हैं।

जिस समय ईश्वर प्रक्रति के जीव-जंतुओ का निर्माण कर रहा था;उसने प्राणियों की पाचन व्यवस्था का भी पूरा ध्यान रखा ।भैस ,गाय ,गधा ,उँट,बकरी को खाना खाने के बाद जिस प्रकार “जुगाली” करने की प्राकृतिक व्यवस्था दी गई;ठीक उसी प्रकार मनुष्यों को चुगली करने की। आप अक्सर खाने के बाद अपने आप को सहपाठी ,सह्चर,पडोसी,बॉस की बुराई करते हुए पाऎगें।

दरअसल “चुगली करना” भी अपने आप में अत्यंत आन्नददायक विषयवस्तु है।जिस प्रकार माँ अपने सफल बेटे को देखकर ,पिता अपने कर्तव्यों को पूर्ण होता देखकर,बहनें रक्षाबन्धन का उपहार देखकर,और अंग्रेज हिन्दुस्तान जैसे देशों को आजाद करके हार्दिक प्रसन्न होते हैं ,ठीक उसी प्रकार चुगलखोर अपनी चुगली भरी बातों में दूसरों को फंसाकर खुश होते हैं। “वास्तविकता में चुगलखोर वह है जो यह जानता है कि जिन सिद्धांतो का वह उपदेश दे रहा है वे झूठे हैं तथा जो लोग उसे सुन रहे हैं वो महामूर्ख हैं ।“ चुगली करने से प्राप्त हुए असीम आनन्द को वह व्यक्ति कभी नहीं प्राप्त कर सकता जिसने जिन्दगी में कभी भी चुगली न की हो ।
यहाँ मेरा “मन की भडास” और “चुगली” के अंतर को स्पष्ट करना बहुत आवश्यक हो गया है।वास्तव में “मन की भडास” निकालना अपने मन को शांत करने के लिये किया जाता है।इसमें कहीं न कहीं स्वार्थ अवश्य होता है परन्तु “चुगली” तो निश्वार्थ रूप से की जाती है ।हम दूसरो की बुराई उस समय भी कर सकते हैं जबकि हमें उससे कोई लाभ न हो रहा हो ।

वैसे तो “चुगली करना” ही पूर्णरूपेण प्राकृतिक क्रिया है परन्तु इनमे भी कुछ लोगो की चुगली करना” Basics सीखने जैसा है।बच्चा अपने भाई बहनो की चुगली ;किशोर का अपने अध्यापक की चुगली ,युवावस्था में “गर्लफ़्रेड युक्त” साथियो की “गर्लफ़्रेड रहित” साथियों द्वारा चुगली ;नौकरी मे बॉस की चुगली ; रिटायरमेंट के बाद पत्नी की चुगली ;और म्रत्यु समीप देखकर भगवान की चुगली करना एक अछ्छे चुगलखोर के सफल सफर में पडने वाली सीढियां है।
अब इससे आगे भी पढ्ने की या फिर सुनने की इछ्छा हो रही है तो बस इतना कहूंगा कि “अछ्छे अवसर बार -2 नही आते”।सुबह उठते ही डायरी में रूटीन वर्क बना लें कि आज किसकी,कम से कम कितने लोगों के सामने चुगली करनी है।आखिरकार आप भी तो इस “कलयुग” के काले भद्र पुरूष है और आपका भी परम कर्तव्य है कि आप भी “बुरा करो; बुरा सोचो; बुरा देखो”....को युक्तिसंगत बनायें.।

Wednesday, June 07, 2006

Sunday, April 30, 2006

maine jab bhi kuch likha

Tuesday, April 25, 2006

हमने जब भी कुछ लिखा

जाने कितने कवियों ने कवितायें लिखी;
जाने कितने कागज पर रचनायें घुटीं।
जाने कितने शब्दों की स्वरलहरी;
बन प्रपात झरने सी झर कर चली गई।

फिर भी अंजान ,अद्र्श्य !
मानव की वाहवाही में
हम खुश हो जाते,या झूठी चंद प्रशंशा में
खुद हंस कर सारे गम को सह जाते!

जब-2 जली सुहागन चंद नोटों या सिक्कों पर
तब हमनें एक रचना रच डाली ;
जब -2 बच्चे के भूखे पर आंख पडी!
कवि को मिली खुशी ;चलो एक रचना फिर मथ डाली!

एक अभागिन जब लाज वसन थी बेच रही!
हम बता कहानी उसकी;तालियां जुटाते थे!
एक भिखारिन मन्दिर के एक कोने पर खडी रही;
हम खुश होकर कविता उस पर कह जाते थे!

क्या तुझे पता नही कवि !
तू किन्हे सुनाता अपनी ये कविताये!
ये धूर्त, कुतर के स्वामी!
जनता तेरी कवितायों पर बस खुश होती है!
तुझ पर नही !
"गरीबी ,लाचारी" पर बेखौफ तालियां पिटती है!

सौ साल पूर्व लिख दी थी एक ऐसी रचना!
जिसमें भी बच्चा भूखे पेट सोता था!!
वह "क्रांतियुग" से भी पहले का था युग जिसमें!
कवि "स्र्त्री" को "देवी" का रुपक कह्ता था!

तब बन जाते थे ऐसे ही कवि!
दरबारों के "नवरत्न" प्रिय!
अब "राष्ट्रकवि" बन जाते हैं
फूल मालाऎं मिल जाती हैं।

पर लौट के फिर जब जाता है उस मदिंर में
तो वही भिखारिन त्रश होकर आंख मिलाती है!
मासूम सा बच्चा ,लिये हथौडा !
पत्थर ! और तेजी से तोडता जाता है!!!!

Friday, April 21, 2006

maine jab bhi kuch likha

जिन खेतों में हल चलता है!
घर में चक्की चलती है!
उस घर की सबसे बड्की !
अरमान पीसती और कलेजा,मलती है!

करती है व्यापार;जब छोटे ;
व्याकुल होकर रोतें है!
और उसी वक्त करुणानिधान क्षीर में;
"लक्ष्मी" की गोद में सोते हैं!

Saturday, April 15, 2006

Jindgi ki rahon par;
Jub mudkar dekha;
to chnd saal dikhai diye,
kuch khamosh;kuch tufaan liye;

chnd unchuye armman liye;
jamin kee khaak se aasman ke taro tak;
fiza ka har zrra maut ka saman liye.

ki aane wala har lamha laye khusiyan aur mohabaat;
itni kee lataman liye.
jhan se log bolen;
ki dekho aaya dost ek naya koi;
hamen bhi pyar sikahne ke liye.